Saturday 26 March, 2011

मेरे अनुभव : साविद्या के साथ

(आठवें सेमेस्टर की परीक्षाओं के बाद कुछ माह एक गैर सरकारी संगठन  "साविद्या" (साविद्या की वेबसाइट के लिए क्लिक करें) में काम किया , जो  पिछड़े सरकारी विद्यालयों के उन्नयन के लिए  काम करती है. साविद्या स्मारिका २०११ में "मेरे अनुभव : साविद्या के साथ " इसी शीर्षक के साथ मेरा छोटा सा लेख प्रकाशित हुआ है , जिसे यहाँ पर प्रस्तुत कर रहा हूँ ........)
भाग - १ 
                       साविद्या से मेरा परिचय  करीब डेढ़ साल पुराना है.इससे से पूर्व मेरी जानकारी  हिमवत्स नामक संस्था तक सीमित थी , जो कि डॉ एच. डी. बिष्ट जी के मार्गदर्शन में सरकारी विद्यालयों में काम कर रही है , परन्तु संस्था की पूर्ण गतिविधियों से मैं भली-भांति अवगत नहीं था. इंजीनियरिंग की पढाई के दौरान अनायास ही एक दिन मैंने गूगल सर्च इंजन में चम्पावत सर्च किया तो वहां मुझे साविद्या का लिंक मिला. जहाँ से मुझे साविद्या की पूर्ण गतिविधियों की जानकारी मिली. इसके साथ ही मुझे  एक इंजीनियरिंग छात्र द्वारा प्रेषित रिपोर्ट भी मिली, जिसने कुछ माह पूर्व ही संस्था द्वारा अंगीकृत विद्यालयों का निरीक्षण किया था. इस छात्र की रिपोर्ट ने मुझे काफी प्रभावित किया और मैंने सोचा की डिग्री पूरी होने के बाद ग्रीष्मावकाश में मैं भी अपनी सेवाएं संस्था को दे सकता हूँ. दीपावली अवकाश में मैंने अपनी इच्छा संस्था के संरक्षक श्री जी. बी. रस्यारा जी के सामने रखी, उन्होंने शाबासी देते हुए कहा क़ि तुम्हारा स्वागत है और अब इच्छा निर्णय में बदल गयी. इसी बीच सातवें सेमेस्टर क़ी परीक्षाओं के दौरान मैं बीमार पड़ गया और परीक्षा ख़त्म होने के बाद बीमारी और बढ गयी. पेट से शुरू हुआ दर्द, कमजोरी और तेज सिरदर्द में तब्दील हो गया. विजन blurred (धुंधला) हो गया था. कहाँ ऍम. टेक. की प्रवेश परीक्षा देनी थी यहाँ पहुँच गया अस्पताल , पांच महीने के आराम व इलाज के बाद लिख व पढ़ पाने में सक्षम हुआ और आठवें सेमेस्टर की परीक्षा उत्तीर्ण कर डिग्री प्राप्त की. इलाज जारी था, मैं लिख  पढ़ सकता पर कोई सूक्ष्मक कार्य करने में परेशानी थी. ज्यादा पढ़ता तो सिरदर्द , ज्यादा टीवी देखता तो सिरदर्द. घर में अकेले समय व्यतीत करना मुश्किल था और मैं सोच रहा था कैसे खुद को व्यस्त रखूँ. तो एक दिन कमलेश सर ने सुझाव दिया क्यों नहीं तू कुछ दिन साविद्या में काम कर लेता है? मुझे अपना निर्णय याद आया जो कि मैं भूल ही चूका था इस आपाधापी में और सुझाव भी पसंद आया. रोजाना ३-४ km चलना भी हो जायेगा, क्योंकि दवाइयों से शरीर फूल रहा था और इससे अधिक महत्त्वपूर्ण वह काम भी कर पाऊंगा जो मैं करना चाहता था. तो अगले दिन प्राथमिक पाठशाला कुलेठी पहुंचा, मैनेजर श्री ऍम. सी.रस्यारा जी के सामने अपने इच्छा जाहिर की, उन्होंने गर्मजोशी से स्वागत किया और ३ जून २०१० को मैं एक स्वयंसेवी के रूप में संस्था से जुड़ गया.
                        मेरा मानना है कि शिक्षा पीढियां बना सकती है और पीढियां परिवर्तित भी कर सकती है.शिक्षा का प्रभाव केवल पढने वाले छात्र पर ही नहीं पड़ता ,अपितु एक सुशिक्षित छात्र/छात्रा आगे चलकर एक सुशिक्षित पिता/माँ/पति/पत्नी तथा विस्तृत रूप में एक सुशिक्षित पीढ़ी का प्रणेता बनता है.शिक्षा केवल किताबी ज्ञान नहीं है,शिक्षा वह है जो हमें जीविका देती है,जो हमें व्यावहारिक बनाती है, जो हमें एक सोच देती है तथा जो हमें जीना सिखाती है . इसीलिए शिक्षक का स्थान समाज में सर्वोपरि है. चिकित्सक के हाथ में केवल उसके मरीज का जीवन होता है,पर शिक्षक के हाथ में छात्र के साथ-साथ उसकी पूरी पीढ़ी का जीवन होता है, ऐसी ही विचारधारा के साथ मैं साविद्या के साथ जुड़ा, जिससे कि ऐसी व्यवहारिक शिक्षा उन बच्चों को दे सकूँ जो कि साधनहीन हैं और जीवन कि मूलभूत आवश्यकताओं से विपन्न हैं.
(बच्चों के साथ संस्था के लोग)
             विज्ञान वर्ग से होने के कारण मैंने LASRC (Learning and Science Resource Center ) में काम शुरू किया. LASRC  एक ऐसा केंद्र है जहाँ प्राथमिक स्तर से लेकर बारहवीं तक के प्रयोग (विशेषकर भौतिकी के) उपलब्ध हैं. प्रयोग जो कि परम्परागत प्रयोगों से अलग हैं, बेकार सी दिखने वाली और सस्ती चीज़ों के बने हैं, परन्तु विज्ञानं के जटिलतम रहस्यों को सरलता से समझातें हैं.इन प्रयोगों को डिजाईन किया है, आई.आई.टी. कानपुर के प्रोफेसर डॉ. एच.सी.वर्मा ने , वही डॉ. एच.सी.वर्मा जिनकी "कांसेप्ट ऑफ़ फिजिक्स " पढ़कर ही हमने इंजीनियरिंग कि परीक्षाएं दी हैं. मैं काफी उत्साहित था ,बीमारी का ध्यान यदा कदा ही आता, यद्यपि विज़न अभी भी धुंधला था. दो-तीन घंटे LASRC में आराम से व्यतीत हो जाते, उसके बाद आराम और शाम को घूमना . मैं बीमार कहाँ था? कोई कह सकता था क्या कि मैं बीमार हूँ.
(पर्यावरण दिवस २०१० पर लगा LASRC का स्टाल ) 

Sunday 13 March, 2011

जापान तुम उबर जाओगे!

जापान , भगवान जिन्हें मजबूत बनाना चाहता है, उनकी बार-बार परीक्षा लेता है . हमें उम्मीद है तुम जल्द ही इस त्रासदी से उबर जाओगे. तीव्र भूकंप और उससे जनित सुनामी ने जो विनाश किया है , वह तुम्हारे मजबूत इरादों को डिगा नहीं सकता . हिरोशिमा - नागासाकी जैसी त्रासदी को झेलने के बाद भी जिस तरह तुम दुनिया की प्रमुख
*(फोटो स्रोत : इन्टरनेट )
 आर्थिक शक्ति हो, यह हमें विश्वाश दिलाता है की शीघ्र ही तुम इससे पार पा लोगे. प्रकृति की इस त्रासदी से हताहत हुए लोगों को हमारी सच्ची श्रधांजलि है. अखबारों में पानी में डूबे घरों, भयंकर भूकंप , बेदर्द सुनामी के अलावा तुम्हारी भूकंपरोधी भवन शैलियों तथा सटीक आपदा प्रबंधन के बारे में भी पड़ने को मिल रहा है. हमें विश्वाश है कि शीघ्र ही तुम दुनिया को पुनः दिखाओगे " विपरीत परिस्थितियों में भी आगे कैसे बढ़ा जाता है."

Monday 7 March, 2011

शिक्षा के व्यवसायीकरण से हो रहा नैतिक मूल्यों का पतन

हाल में ही हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के वार्षिक दीक्षांत सामारोह में बोलते हुए केन्द्रीय मानव एवं संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने शिक्षा के व्यवसायीकरण से हो रहे सामाजिक परिवर्तन के विषय में बात की . उन्होंने इसे शिक्षा में हो रहे नैतिक मूल्यों के पतन के लिए जिम्मेदार माना . कैसे इस समस्या से जूझा जाये , ये तो उन्होंने नहीं बताया , पर उनकी बातें शत प्रतिशत सही हैं . अब जब सरकार शिक्षा के क्षेत्र में अधिकतम निजी भागीदारी और  पीपीपी मोड की बात कर रही है , तो इससे शिक्षा का  व्यवसायीकरण नहीं होगा यह कैसे सुनिश्चित किया जायेगा , ये सोचनीय प्रश्न  है . द हिन्दू में छपी खबर का कुछ अनुवादित भाग प्रस्तुत है-
           "शिक्षा के व्यवसायीकरण से न केवल नैतिक मूल्यों में पतन हुआ है , अपितु कई समस्याओं का प्रादुर्भाव भी हुआ है , जिससे शिक्षा खोखली हो रही है"
           " ये  दुर्भाग्यशाली है , कि शिक्षा का उद्देश्य केवल उच्च वेतनिक  नौकरी दिलाने वाले  डिप्लोमा और डिग्री  प्राप्त करने तक सीमित हो गया है . केवल आर्थिक समृधि पाने क़ी इस दौड़ में नैतिक मूल्य पाश्र्व में चले गए हैं".
           आधुनिक शिक्षा तंत्र में  छात्रों के हितों तथा शिक्षा के  मूल्यों में आई कमी पर दुःख व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा -  " शिक्षा एक उच्च प्रतिफल देने वाला व्यवसाय बन गया है तथा छात्रों क़ी बढती उच्च वेतन क़ी आंकाक्षाओं के साथ बढता ही जा रहा है . शिक्षा का व्यवसायीकरण इस हद तक हो चुका है कि अधिकतर निजी  संस्थानों एवं महाविद्यालयों में सीटें आसानी से खरीदी जा सकती हैं."
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पूरी खबर पड़ने के लिए क्लिक करें  द हिन्दू.  
   
आज के भ्रष्ट युग में , अगर हमें भ्रष्टाचार को ख़त्म करना है तो, छात्रों को  व्यक्तिगत रूप से  नैतिक  बनाना होगा . और यहाँ तो हमारा शिक्षा तंत्र  छात्र जीवन से ही भ्रष्टाचार की ट्रेनिग दे रहा है , आपको कोई उपाय सूझता  है क्या ?