Tuesday, 13 January 2015

घुघतिया : काले कौवा वाला त्यौहार

 जनवरी के महीने में कभी पहाड़ गए हैं ।  सुबह उठो तो , चारों तरफ क्या देखते हो , जैसे रात में किसी ने पाले की  सफेद चादर बिछा दी हो।  खेत, रास्ते, घर की छतें  सब चांदनी से भी ज्यादा सफेद।  अगर धूप मेहरबान हो तो दिन अच्छा कट जाता है और शाम का सहारा तो आग ही है। ज़िन्दगी थम सी जाती है ठण्ड में यहाँ।  दिवाली से शुरू हुई कड़ाके की ठण्ड जनवरी तक अपने पूरे शबाब पर होती है।  और ऐसे में आता है  बच्चों का काले कौआ वाला त्यौहार , घुघतिया। 
मकर संक्रांति के आस पास देश के हर कोने में कोई न कोई त्यौहार  मनाया जाता है।  पंजाब लोहड़ी में नाचता है, तो दक्षिण भारत खासकर आंध्र प्रदेश और तेलंगाना का तो पोंगल या संक्रांति दशहरे के बाद दूसरा बड़ा त्यौहार है। उत्तर भारत में मकर संक्रांति पर आसमान रंग बिरंगी पतंगों से पट जाता  है, तो धार्मिक नगरियों जैसे इलाहाबाद और हरिद्वार में आज के दिन गंगा स्नान  का बड़ा महत्व है , और अगर कुम्भ का स्नानं हो तो भीड़ के सारे रिकार्ड्स टूट जाते हैं। ऐसे में दुनिया की आपाधापी से कहीं दूर पहाड़ो  में ठण्ड से थम गयी लाइफ
को जगाने, लोगों को याद दिलाने,  कि  बस अब ठण्ड जाने वाली है,  आता है घुघतिया त्यौहार। 
  उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल में मकर संक्रांति घुघतिया के नाम  से मनाई जाती है, जिसे लोग शार्ट में  'घुघती त्यार ' या 'उत्तरेणी ' भी बोलते हैं।  घुघतिया मुख्या रूप से बच्चों का त्यौहार है।  इस दिन  कौवों की बड़ी पूछ होती है, बुला बुला के कौवों को पकवान खिलाये जाते हैं।  कुमाऊं में इस सन्दर्भ में एक फ्रेज भी फेमस है 
           "न्यूती वामण और घुघतिक कौ "
मतलब श्राद्धों या नवरात्रों में ब्राह्मण का मिलना और घुघती त्यार के दिन कौवे का मिलना एक समान है अर्थात बड़ा मुश्किल है। 
 घुघतिया या उत्तरेणी मनाने का कारण वही है जो मकर संक्रांति  बनाने के पीछे है। सूर्य इस दिन से उत्तरायण हो जाता है, इसीलिए इसे उत्तरेणी भी कहते हैं। इस दिन से  ठण्ड घटनी शुरू हो जाती है, प्रवासी पक्षी जो कि ठण्ड के कारण गरम क्षेत्रों की और प्रवास कर गए थे, पहाड़ों की ओऱ लौटना शुरू करते हैं।  इन्ही पंछियों के स्वागत का त्यौहार है घुघतिया , जिसका नाम भी एक पहाड़ी  चिड़िया के नाम पर है, जिसे कुमाँऊनी  में घुघुती कहते हैं। 
घुघतिया त्यौहार की पहचान पकवानों से है।  आग के चारों ओऱ पूरा परिवार बैठता है, और गुड़  और दूध में गुंथे हुए गेहूं के आटे से अनेक तरह की छोटी छोटी आकृतियां बनाई जाती हैं, जैसे तलवार, डमरू, ढाल, दाड़िम , शक्करपारा (कुमाँऊनी में खजूर) , मंदी आंच में तलकर इन आकृतियों को नारंगी यानि कि  संतरे के साथ गूंथ कर मालाएं बनायी जाती हैं।  अगले दिन सुबह पकवानों की माला गले में लटकाये बच्चे 
" काले कौवा काले , घुघती माला खा ले " कह कह के कौवों को बुलाते हैं और पकवान खिलाते हैं।  आस पड़ोस में पकवानों की अदला बदली होती है, ख़ुशी से बच्चे चिल्लाते हैं  तो गाँव - मोहल्लों में सुबह सुबह चहल पहल देखने लायक होती है।  जो बच्चे किसी कारणवश दूर परदेस में होते हैं , माएं या दादी - नानी  उनके लिए माला बनाकर सहेज के रखती हैं, ताकि उनके घर आने पर उन्हें पहना के खिला सकें या किसी परदेस जाने वाले मुसफ़िर के हाथ भेज सकें।  दोपहर तक चलने वाला ये त्यौहार प्रायः माघ की खिचड़ी (काले मास की खिचड़ी) के लंच के साथ खत्म होता है।
 अगर आप पहाड़ की संस्कृति तथा रहन सहन का सूक्ष्म विश्लेषण करेंगे तो जान पाएंगे कि "कम संसाधनों में भी सुखी और सम्मानजनक जीवन कैसे जिया जाता है। " हर संसाधन की कमी है, पर लोग सुखी हैं, संतुष्ट हैं।  ठण्ड कड़ाके की पड़ती है पर ठण्ड से कोई मरता नहीं और  ठण्ड में नींद भी और गहरी आती है वहां पर।  अगर प्रकृति की गोद  में सच्ची शांति और सुकून का अनुभव करना हो तो  कुछ दिन गुज़ार कर आइये पहाड़ के किसी छोटे से गाँव या कस्बे में। 



Wednesday, 23 January 2013

तार बिजली से पतले हमारे पिया

आजकल गैंग्स ऑफ़ वासेपुर-2 का ये गाना सुन रहा हूँ, महिला संगीत सा लगने वाला ये गाना अंत तक पहुँचते पहुँचते राजनीतिक पुट ले लेता है।गाया है पदमश्री  शारदा सिन्हा जी ने , संगीत है प्रतिभाशाली युवा संगीतकार स्नेहा खानवलकर का , बोल लिखे हैं  वरुण ग्रोवर ने।


गाना सुनने के लिए क्लिक करें 

Thursday, 17 January 2013

होली , पापा और बाबाजी

होली 
कुमाँऊं , खासकर काली कुमाँऊं का खास त्यौहार होली, मेरा प्रिय त्यौहार  है। होली की मस्ती में झूमा पहाड़ , दोपहर से लेकर शाम तक खड़ी होली, रात में बैठक होली, चार से पांच दिन का सामूहिक महोत्सव जिसमें बूढे से लेकर बच्चा शामिल होता है, ये हैं मेरी होली की यादें। और ये मेरी  बचपन  की सबसे अच्छी यादों में से एक है। हर चिंता , खासकर मम्मी की डांट भूलकर पांच दिन तक एक अलग ही दुनिया में खो जाना अच्छा लगता था और आज भी लगता है की उन दिनों में वापस चले जाऊं। 


पापा 
पापा 
 चम्पावत और उसके आस पास के क्षेत्रों  में दिन भर खड़ी होली में झूमने के बाद, देर रात तक बैठक होली का आयोजन होता है। हारमोनियम और तबले  की संगत में गायी जाने वाली बैठक होली अनेक रागों का मिश्रण होती है। बैठक होली की यादें पिताजी के साथ जुडी  हैं। प्रायः शांत रहने वाले पिताजी जब तबले  के साथ  होली गाते हैं, बड़ा अदभुत  अनुभव होता है। होलिओं में पापा देर रात तक वयस्त रहते हैं, जगह - जगह  होली  बैठकों में। इस पोस्ट में उनकी एक प्रिय होली का विडियो भी लगा रहा हूँ , जो बाबाजी ने गाया है।


बाबाजी 
गंधर्व गिरी महाराज जी से कभी मिला भी नहीं हूँ  और व्यक्तिगत रूप से जानता  भी नहीं हूँ। उनकी गायी हुई होली बहुत पसंद आई थीं , उन्हें यहाँ लगा रहा हूँ।करीब एक साल पहले ये विडियो YouTube में देखे थे, जो कि  श्री हिमांशु पन्त और श्री  पी जोशी ने अपलोड किये हैं।  




पापा की प्रिय होली ,बाबाजी की आवाज में 


साभार: YouTube 

Saturday, 20 October 2012

एक पुराना कागज़ का टुकड़ा

काफी महीनों के बाद कुछ लिख रहा हूँ,आज का जीवन है ही ऐसा,रचनात्मकता के लिए टाइम किसके पास है। कुछ नया तो नहीं लिखा है,समय भी नहीं मिलता और शायद लिखने की आदत भी छूट गयी है।पर एक कागज़ , (जो काफी पुराना है और एक बार मम्मी ने जीन्स के साथ धो भी दिया है . बड़ी मुश्किल से मम्मी की नज़रों से छिपाकर, मैंने इस कागज को कम्युनिकेशन की किताब के अन्दर रखा था और ये पन्ना अभी भी इस किताब में सुरक्षित है। छुपाया इसलिए , कि मम्मी को बेवजह शक न हो और उस मुझे चिढाने का एक नया मुद्दा न मिले।) की पंक्तियाँ यहाँ लिख रहा हूँ।ये पंक्तियाँ लिखी तो मैंने हैं ,पर अपने इस्तेमाल केलिए नहीं। जैसे कई नेता अपने भाषण लिखवाते किसी और से हैं , और बोलते खुद हैं। उसी तरह मेरा दोस्त कुछ पंक्तियाँ मुझसे लिखवाता था और उसे अपनी महिला मित्र को ऐसे सुनाता था, जैसे उसने खुद लिखी हो। लिखने की मांग कभी भी आ सकती थी और लिखने के बाद उसे पूरा अर्थ भी बताना पड़ता था , क्योकि सुनने वाली ने भाव पूछ दिया तो पकड़े जाने का खतरा था। हालांकि मुझे भी कुछ खास हिंदी नहीं आती , पर मेरी समकालीन पीढ़ी की हिंदी कुछ ज्यादा ही अच्छी है, इंजिनियर की हिंदी अभियंता बताने पर ऐसे चौंकते हैं , जैसे म्यूजियम में कोई एंटीक पीस देख लिया हो। कभी कभी मेरे दोस्त की व्याख्या और व्याख्या के बाद उठे उसकी दोस्त के प्रश्न ऐसे होते , कि हम सभी दोस्त बाद में ठहाके मार के हँसते। हालाँकि जब मेरे मित्र के सम्बन्ध मोहतरमा के साथ गहरे हो गए तो उसने कबूल कर लिया कि वो पंक्तियाँ वह खुद नहीं लिखता था।

तो पेश हैं पुराने कागज में लिखी लाइनें -
 

तुम्हारे चेहरे के नूर से न जाने कितने दिल रोशन हैं। ये नूर तो रोज़ चाँद को जलाता है, क्योंकि इसकी चाँदनी भी इतनी नूरानी नहीं है। और ये नयनों की चंचलता न जाने कितनों को दीवाना कर गयी है, जो अपनी अदाओं से हया व दुआ दोनों का काम करते हैं। चेहरे पर गिरती तुम्हारी केशों की लट, दिलों की धड़कन बड़ा देती है, मानो सोने पर सुहागे की कमी थी। तुम्हारी दिलकश मुस्कान तो मुर्दे को भी जिला सकती है। नेत्रों और अधरों के मध्य ऐसा सामंजस्य है कि  कहीं पर भी वज्रपात हो सकता है। तुम्हारे नयनाभिराम सौन्दर्य पर तो हजारों कामदेव मर जायें, मैं तो इंसान हूँ।

Monday, 25 July 2011

मम्मी की पुष्पवाटिका

मम्मी की पुष्पवाटिका इन दिनों पूरे शबाब पर है. स्कूल,खेत, घर के काम के अलावा मम्मी कुछ समय अपनी व्यस्तम दिनचर्या में से फूलों के लिए भी निकालती हैं. दिसम्बर से मम्मी गमलों की सफाई, गुडाई, ...... में लगी है.
                फोटोग्राफी मेरा शौक है, पर अभी तक अपने ब्लॉग में खुद खींची हुई फोटो नहीं लगाई थी. पहली बार लगा रहा हूँ, फूलों के नाम मत पूछियेगा, मुझे भी नहीं पता हैं. आपको पता हैं, तो बताइयेगा ज़रूर.