काफी महीनों के बाद कुछ लिख रहा हूँ,आज का जीवन है ही ऐसा,रचनात्मकता के लिए टाइम किसके पास है। कुछ नया तो नहीं लिखा है,समय भी नहीं मिलता और शायद लिखने की आदत भी छूट गयी है।पर एक कागज़ , (जो काफी पुराना है और एक बार मम्मी ने जीन्स के साथ धो भी दिया है . बड़ी मुश्किल से मम्मी की नज़रों से छिपाकर, मैंने इस कागज को कम्युनिकेशन की किताब के अन्दर रखा था और ये पन्ना अभी भी इस किताब में सुरक्षित है। छुपाया इसलिए , कि मम्मी को बेवजह शक न हो और उस मुझे चिढाने का एक नया मुद्दा न मिले।) की पंक्तियाँ यहाँ लिख रहा हूँ।ये पंक्तियाँ लिखी तो मैंने हैं ,पर अपने इस्तेमाल केलिए नहीं। जैसे कई नेता अपने भाषण लिखवाते किसी और से हैं , और बोलते खुद हैं। उसी तरह मेरा दोस्त कुछ पंक्तियाँ मुझसे लिखवाता था और उसे अपनी महिला मित्र को ऐसे सुनाता था, जैसे उसने खुद लिखी हो। लिखने की मांग कभी भी आ सकती थी और लिखने के बाद उसे पूरा अर्थ भी बताना पड़ता था , क्योकि सुनने वाली ने भाव पूछ दिया तो पकड़े जाने का खतरा था। हालांकि मुझे भी कुछ खास हिंदी नहीं आती , पर मेरी समकालीन पीढ़ी की हिंदी कुछ ज्यादा ही अच्छी है, इंजिनियर की हिंदी अभियंता बताने पर ऐसे चौंकते हैं , जैसे म्यूजियम में कोई एंटीक पीस देख लिया हो। कभी कभी मेरे दोस्त की व्याख्या और व्याख्या के बाद उठे उसकी दोस्त के प्रश्न ऐसे होते , कि हम सभी दोस्त बाद में ठहाके मार के हँसते। हालाँकि जब मेरे मित्र के सम्बन्ध मोहतरमा के साथ गहरे हो गए तो उसने कबूल कर लिया कि वो पंक्तियाँ वह खुद नहीं लिखता था।
तो पेश हैं पुराने कागज में लिखी लाइनें -
तो पेश हैं पुराने कागज में लिखी लाइनें -
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